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कोरोना ने इस साल फिर बिगाड़ा कुश्ती का खेल, पहलवानों का बुरा हाल

कोल्हापुर :

पश्चिम महाराष्ट्र में लाल मिट्टी के अखाड़े पर खेले जाने वाले देसी कुश्ती का खेल बड़ा लोकप्रिय है. खासकर सांगली और कोल्हापुर जिले में यदि देसी कुश्ती का इतिहास टटोले तो इस लिहाज से यहां 6 मार्च, 1965 का दिन बड़ा महत्त्वपूर्ण माना जाता है.

इस दिन पहलवान मारुती माने और पहलवान विष्णु पंत सावर्डेकर के बीच कोल्हापुर के खासबाग मैदान पर करीब ढाई घंटे तक गजब का दंगल हुआ था. लोगों को दोनों बड़े पहलवानों के बीच कुश्ती के कड़े मुकाबले का अंदाजा पहले से ही था जो उस दिन मैदान पर इतनी भीड़ जमा हो गई थी कि वहां दर्शकों के लिए खड़े रहने की भी जगह न थी. यह मुकाबला अंततः पहलवान मारुती माने ने जीता था, जो सांगली जिले के एक छोटे-से गांव कवठेपिरान में जन्मे थे.

कुश्ती के लिए प्रसिद्ध पश्चिम महाराष्ट्र में जब भी दो पहलवानों के बीच कोई बड़ा मुकाबला होता है तो कुश्ती के शौकीन दर्शक आज भी साल 1965 में हुए उस ढाई घंटे तक चले मुकाबले से तुलना करने लगते हैं. लेकिन, अफसोस कि कोरोना महामारी के कारण पश्चिम महाराष्ट्र में जात्रा याने मेले और यात्राएं दूसरे साल भी रद्द कर दी गई हैं. इसके चलते यहां के अखाड़े भी पिछली साल की तरह इस साल भी बंद हैं. यही वजह है कि परंपरागत कुश्ती जैसे खेल में अपना कैरियर दांव पर लगा चुके कई पहलवानों का भविष्य यहां अनिश्चितता की गर्त में हैं.

इस बार ‘महाराष्ट्र केसरी’ कुश्ती प्रतियोगिता के प्रमुख दावेदारों में एक नाम सांगली के ही पहलवान अरुण बोगार्डे का भी है. यह पहलवान अपना दर्द बयां करते हुए बताते हैं कि सांगली में कुश्ती के अखाड़ों से सुनाई देने वाली दंड, बैठक और जांघों की आवाजें बंद हो चुकी हैं.

दरअसल, कोरोना संक्रमण पर नियंत्रण और बचाव के लिए लगाए गए लॉकडाउन के कारण यहां पिछले साल से कुश्ती के आखाड़ों से पहलवान नदारद हैं. कुश्ती यहां का इतना अधिक लोकप्रिय खेल है कि इससे स्थानीय स्तर पर कई लोगों को रोजीरोटी मिलती है और हर साल कुश्ती के क्षेत्र में 15 से 20 करोड़ रुपए का कारोबार होता है. लेकिन, फिलहाल पहलवान खाली हाथ हो गए हैं. जाहिर है कि ऐसे में कई पहलवान इन दिनों भयंकर तंगी के दौर से गुजर रहे हैं.

इस बारे में यहां कुश्ती की एक बड़ी प्रतियोगिता ‘महाराष्ट्र केसरी’ के विजेता रहे अप्पासाहेब कदम अपने अनुभव साझा करते हुए कहते हैं, ‘कुश्ती का पूरा खेल दो पहलवानों के शारीरिक स्पर्श और तेज सांस लेने से जुड़ा है. इसलिए, कोरोना के कारण सबसे बड़ा झटका कुश्ती के क्षेत्र में देखने को मिला है. फिर कुश्ती का खेल मुख्य रूप से गरीब परिवार के बच्चों के लिए है. इसलिए चुनौती यह है कि वे इस परंपरागत खेल के लिए यदि अपना बहुत कुछ दांव पर लगा चुके हैं तो उन्हें बहुत मुश्किल होगी.’

कोरोना से पहले सांगली में आई बाढ़ की वजह से भी कुश्ती के क्षेत्र से जुड़े पहलवान और संचालकों को वित्तीय संकट का सामना करना पड़ा था. अकेले सांगली जिले में विशेष तौर पर कुश्ती के लिए साठ से सत्तर मैदान हैं जहां बीते कई महीनों से न कुश्ती के बड़े आयोजन हो रहे हैं और न ही पहलवान रिहर्सल या प्रशिक्षण हासिल कर पा रहे हैं.

हालांकि, इस दौरान कुछ पहलवान अपने व्यक्तिगत प्रयासों से पहलवानी का अभ्यास करते रहे हैं, मगर मैदानों पर बड़ी संख्या में लगने वाले ट्रेनिंग कैंप और नए-पुराने पहलवान तथा प्रशिक्षक पूरे तरह से गायब हो गए हैं. लिहाजा, सांगली में अब न तो पहले की तरह कुश्ती का माहौल नजर आता है और न ही कुश्ती के प्रति पहले जैसा जोश या उत्साह ही दिखाई देता है.

इसी तरह, बातचीत में कई पहलवान बताते हैं कि दो साल पहले सांगली जिले में कृष्णा और वारणा नदियों में आई महाविनाशकारी बाढ़ के चलते कुंडल, पलूस देवराष्ट्र, बंबावडे और बोरगांव में कुश्ती के मैदानों पर कुश्ती की गतिविधियां बंद करनी पड़ी थीं. तब बाढ़ ने यहां कुश्ती से जुड़े पहलवान, संचालक और दर्शकों के मंसूबों पर पानी फेर दिया था.

बावजूद इसके, इस साल के लिए यह उम्मीद जताई गई थी कि फरवरी से मई महीने के दौरान जब मौसम कुश्ती के खेल के लिए अनुकूल रहेगा और गांव-गांव में जात्रा का आयोजन होगा तो फिर कुश्ती के बड़े दंगल आयोजित होंगे। इस तरह, बाढ़ के कारण कुश्ती कारोबार को हुए नुकसान की भी भरपाई हो जाएगी.

बता दें कि सांगली जिले में जिन साठ-सत्तर मैदानों पर कुश्ती के खेल निरंतर आयोजित होते रहे हैं उनमें चिंचोली, वीटा, पाडली, बेनापुर और खवसपुर प्रमुख स्थान हैं जहां जात्रा के दौरान भी कुश्ती की प्रतियोगिता कराई जाती हैं.

दूसरी तरफ, शिरोड गांव के एक पहलवान (30) भरत पाटिल बताते हैं, ‘कुश्ती के अखाड़े दो साल तक बंद रहने का मतलब है कि हम मैदान से बाहर चित हो चुके हैं. आप इस बात को समझिए कि इनसे हम जैसे पहलवानों को कैसे बहुत नुकसान हुआ है! कोरोना के दौरान अब मंहगाई पहले से काफी बढ़ गई है, कोई भी चीज सस्ती नहीं है, जबकि पहलवानों को अतिरिक्त खुराक चाहिए होती है.

मुझे घर की भैंस का दूध तो मिल रहा है, पर बाकी कोई पौष्टिक चीज खरीदकर नहीं खा सकता हूं. सामान्य खाने के लिए ही मैं बड़े लोगों के खेतों में काम करता हूं, ताकि कुछ कमा सकूं और जिंदा रहने लायक भोजन खा सकूं.’

देखा जाए तो सांगली में कुश्ती के कारोबार का पूरा एक अर्थचक्र होता है. पूरे साल भर अभ्यास करने वाले पहलवान कुश्ती के खेल में इस उम्मीद से प्रवेश करते हैं कि वे कुश्ती प्रतियोगिता में जीतकर एक दिन इलाके के बड़े विजेता पहलवान के रुप में पहचाने जाएंगे और एक समय के बाद उनके नाम पर कई नए पहलवान उनके शिष्य बनें. इस तरह वे बाद में नामी प्रशिक्षक के तौर पर भी अपना कैरियर बना सकते हैं.

इसलिए हर पहलवान पूरे साल कुश्ती आयोजन में विजेता बनने की चाहत से कड़ी मेहनत और पैसा खर्च करते हैं. लेकिन, जब बाढ़ और उसके बाद कोरोना के कारण आयोजन बंद हुए तो पहलवानों ने सोचा कि यह एक ब्रेक है और जल्द कुश्ती के आयोजन फिर शुरू होंगे. मगर, अब इसके कारण यहां के पहलवान एक लंबे और अनिश्चितकालीन ब्रेक लगने के बाद बहुत परेशान नजर आ रहे हैं.

वजह यह है कि जब खेल होते थे तो विजेता के अलावा अच्छा प्रदर्शन करने वाले पराजित पहलवानों को भी सांत्वना पुरस्कार के रुप कुछ रकम और पहचान मिलती थी और उस पैसे से वे पहलवानी का अभ्यास करते थे. इसके अलावा कुश्ती का आयोजन जब खत्म होता था तो अगले वर्ष फिर से कुश्ती का आयोजन करने के लिए खर्च का पैसा निकल आता था और इस तरह कुश्ती को परंपरागत रुप से आयोजित कराने का सिलसिला भी बना रहता था. लेकिन, अब जब पिछले दो वर्षों से यह क्रम टूटा है तो कुश्ती के नए कार्यक्रम आयोजित कराने के लिए फंड भी नहीं बचा है.

हर वर्ष मई में जब कुश्ती की ज्यादातर खेल प्रतियोगिता समाप्त हो जाती हैं तो सभी पहलवान उनके अपने गांव चले जाते हैं. फिर जून यानी बरसात के दौरान जब कुश्ती प्रतियोगिता नहीं होती तो यह सभी पहलवानों के लिए ऐसा समय होता है जब वे अपनी कमजोरियों पर कार्य करते हैं. इस समय वे अभ्यास के दौरान प्रतियोगिता में हुईं गलतियों से सबक लेते हैं और खुद को बेहतर पहलवान बनाने की कोशिश करते हैं.

लेकिन, पिछले दो वर्षों से कुश्ती प्रतियोगिताएं बंद हैं तो हर एक पहलवान के रुप में यह समझना मुश्किल हो रहा है कि उनकी पहलवानी में गलतियां क्या हैं और वे किन तरीकों से उनकी अपनी गलतियों को दूर करके एक अच्छा पहलवान बन सकते हैं. वहीं, जब कुश्ती का कारोबार लंबे समय से बंद हो तो हर एक पहलवान के लिए सुविधाएं जुटाना भी मुश्किल हो जाता है और यहां तक की उन्हें खेलने के मौके तक नहीं मिलते हैं. ऐसे में कुश्ती में लंबा ब्रेक खास तौर पर उम्र की ढलान पर खड़े पहलवानों के कैरियर के लिए बुरा साबित हो रहा है.

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